अनासक्ति भाव
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◦ केशव स्वयं अनासक्ति के प्रतीक हैं।प्रेमघट भरा रहा,किंतु त्यागा वृंदावन तो पीछे मुड़ कर न देखा।अंदर तक भर गया था प्रेम तो बाहर क्या देखते । हम सांसारिक प्राणी अलग हैं।माया,मोह,धन सम्पत्ति,परिवार, यश सभी ओर लोलुप दृष्टि है।जब तक सब अपने पास न हो,मन में शांति नहीं।
हम सब भाग रहे हैं,दौड़ रहे हैं येन केन प्रकारेण भौतिक सम्पन्नता पाने को।कोई अंतिम लक्ष्य नहीं।एक इच्छा पूर्ण हुई नहीं कि दूसरी तैयार आसक्त करने को।क्या करें,कैसे करें???
ईश्वर ने समस्या दी तो समाधान भी दिया । प्रेम व कर्म जीवन का अभिन्न अंग हैं अन्यथा सृष्टि चले कैसे।जीवन की राह में परिवार,भौतिक साधनों,धन सम्पत्ति,मित्र, समाज के प्रति आसक्ति बढ़ती जाती है।
संगति का प्रभाव बलवान है,वह चाहेपरिवार, मित्र या पुस्तकों का हो।जैसे लोगों के बीच रहेंगे,जैसा साहित्य पढ़ेंगे,प्रभावित तो होंगे ही।वही संस्कार बन जाते हैं।
प्रेमभाव व आसक्ति में अंतर है। प्रेम मन को प्रसन्नता,शांति देता है।आसक्ति में लोलुपता,लालच है,जो अशांति का कारण है।इस प्रकार प्रेम व आसक्ति परस्पर विरोधी भाव हो गए।प्रेम निर्मल,पुण्य,निष्काम,निष्पाप भाव है ।उसी में लोलुपता,पाने की चाह आ जाए तो वही आसक्ति में परिवर्तित हो जाता है । आसक्ति बहुत से अनिष्टकारी भावों ,ईर्ष्या,द्वेष,लोभ,क्रोध,मोह,असत्य आदि को जन्म देती है। यह सभी आत्मिक पतन के कारण हैं।
यदि हम केवल कर्तव्यभाव को धारण कर के कर्म करें, प्रेम करें,कि कर्म से,प्राणी मात्र से प्रेम करना हमारा धर्म अर्थात् कर्तव्य है ,तो हम अनासक्त ही रहेंगे।इसी को केशव ने श्रीमद्भगवत गीता में ‘ निष्काम भाव ‘ कहा।अनासक्त व्यक्ति कर्म को प्रधानता देता है, कर्म से प्रेम करता है ,फल में उसकी आसक्ति नहीं रहती।यही विदेह होने का भाव है, अर्थात् फल का प्रभाव देह पर नहीं होता।इसी को भगवान कृष्ण ने गीता में कहा —-
कर्मणि अधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन ।
मा कर्मफलहेतुर्भुर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि।।
अर्थात् कर्म में तुम्हारा अधिकार है , फल की प्राप्ति में नहीं (फल ईश्वर के आधीन है)। तुम कर्म के फल का कारण मत बनो,(अन्यथा फल के प्रभाव से पुनर्जन्म प्राप्त करते हुए कभी मोक्ष प्राप्त नहीं कर सकोगे )।तथा कर्म न करने में भी तुम्हारी आसक्ति न हो।
जब फल हमारे हाथ में नहीं तो आसक्ति क्यों रखें।कर्म करने में सम्पूर्ण मन लगा दें ,बाक़ी हरि -इच्छा।फल की इच्छा न हो तो जीवन में जो भी मिले,स्वीकार्य हो। इस स्थिति को गीता में भगवान ने ‘स्थिति प्रज्ञ’ कहा,यानी कर्मफल में समान भाव होना।इससे मन शांत रहेगा, कभी हीन भावना नहीं आएगी तथा अवसाद(Depression) या खिन्नता नहीं आएगी, जीवन प्रसन्न रहेगा ।
हमारा जीवन कर्म प्रधान हो । जय श्री कृष्ण ।
जय हिंद ।