पिंजरा
देख कर पंछी को
पिंजरे में
सदा खुशी ही हो
जरूरी तो नहीं
सबको ही हो
यह भी नहीं
मेरा मन तो हमेशा
बेचैन ही हुआ
भाव
करूणा के ही जगे
शौर्य ने ललकारा भी
पर वह पिंजरा
दूसरों का था
युद्ध का साहस
मुझमें नहीं
शायद अर्जुन में भी
नहीं था
जानता हूँ कि
पंछी को
आजाद करना भी
धर्मयुद्ध है
परन्तु
अपनी दृष्टि से
हार जाता हूँ
मुझे चारों ओर
पिंजरे ही पिंजरे
दिखाई देते हैं
अपना शरीर और
प्राण भी तो
फिर कैसे करूँ युद्ध?