कान्हा को पाती-
आखें मूंदती हूँ तो प्रभु उर में मचे हलचल
और खोलूं जो आखें हलचल में खो जाऊँ।
कुछ दुःख ऐसे प्रभु जो असहनीय है सारे
तुम तो जानते हो दीनानाथ क्या तुम्हें बताऊँ।
कुछ जीने की लालसा अभी हृदय में है बाकि
पर दुख की डगरिया प्रभु कैसे इस पर जाऊँ।
कुछ किसलय पर तुहिन कणों के सांस अभी लेते हैं
उस गुँचाओ का मोह भला कैसे मैं छोड़ पाऊँ।
हे परमेश्वर आस इतनी कुछ तो जीवन संवारो
अपनो की देख प्रगती मैं भी प्रभु इठलाऊँ,
आज भेजती हूँ जो पाती भाव समझ तुम जाना
अब मन की व्यथा खोलकर कैसे मैं समझाऊँ।
रचनाकार- वन्दना सिंह,वाराणसी-उत्तर प्रदेश