हम कहाँ आ गए ।
राष्ट्र के विकास में,
प्रगति के प्रकाश में ,
परंपराओं के साथ
नई चीजों का साथ
लेकर हम कहां आ गए ।
जहाँ हर चीज है ,
बहुत महंगी
भारी हो गयी बँहगी
अधिकारियों की ईमान कहाँ
सबका स्वाभिमान कहाँ
सब चीजों को छोड़ कर
सत्यनिष्ठा से मुँह मोड़कर
हम सब ने ईमान बेच दिया
सस्ते-सस्ते सलटा लिया
निकल गए स्वार्थ की खोज में
चरित्र देहावसान भोज में

आखिर इन सब चीजों से
धन ही तो मिलता इन बीजों से
समस्या का समाधान है दवा
रखें हम सब थोड़ी हया
सोचो जरा ,अगर इसी तरह निस्वार्थ सेवा को भूल जाएँ
आदमियत को इसी तरह
पत्थर जड़ स्थूल बनाएं
तो हम हर अविकास
हर प्रकार विनाश
किस ओर जा रहे हैं ।
अवनति पर हम
मुस्कुरा रहे हैं
जरूर बिकता है ,
प्राणवायु
महंगा पर कभी सोचा ,
इंसानियत की घट रही आयु
तुमने कि हम कहाँ आ गए।
स्वरचित
अंजू बरवा ,रांची झारखंड