…गतांक से आगे।
छठा दिन – आरती से आरती तक।
सड़क की लम्बी यात्रा शरीर को थकान से देती है। उसपर प्रतिदिन का विवरण लिखते चलने का निश्चय। रात देर से सोया तो जागरण में विलम्ब होना ही था। वैसे भी, आज का कोई कार्यक्रम निश्चित नहीं था। फिर भी, प्रातः भ्रमण पर निकलने का निश्चय मुझे जगा ही देता है। सूर्योदय देखने की एक धुन सी सवार रहती है। सच पूछिये तो आदमी अधिकतर अपने निश्चय पर टिक नहीं पाता। जीवन और परिस्थितियाँ उसे समझौता करने पर बाध्य कर लेती हैं। सहजता से। यह भी आवश्यक है। क्योंकि लचीलापन न रखें तब भी जीवन अधिक रुकेगा। आप समय के साथ नहीं चल पायेंगे। ऐसे में कुछ निश्चयों पर टिकना भी, उपलब्धि से कम नहीं।
उठकर बाल्कनी का पर्दा हटाया तो बूँदों ने स्वागत किया। मौसम बदल चुका था। अब भ्रमण पर निकलना तो उसपर ही निर्भर था। परिस्थिति का उदाहरण इतनी जल्दी सामने आ जायेगा, इसकी तो कल्पना भी न थी। वैसे, आराम की तो आवश्यक्ता थी ही। जो होता है, अच्छे के लिए होता है। यह उक्ति ऐसी ही स्थिति में बनी होगी।
मौसम कुछ साफ हुआ तो मैंने मुन्नू से बात की। उसने बताया कि मयंक को थोड़ी सुस्ती लग रही है इसलिए अब हमलोग तीन बजे निकलेंगे।
दोपहर में मौसम कुछ और ठीक हुआ तो मैं पैदल ही टहलने को निकला। चालीस वर्ष पहले विनोद भाई के साथ ऋषिकेश आया था। अब वह दृश्य एकदम बदल चुका है। सड़क चौड़ी हो गयी है और जो गंगा ऊपर से ही दूर तक दिखाई देती थी, ऊँचे होटलों के भवन के पीछे छिप गयी है। नदी के किनारे मंदिरों का साम्राज्य हुआ करता था। अब होटलों, यात्री निवासों और धर्मशालाओं का है। भक्ति और श्रद्धा का स्थान रोमांच ने ले लिया है। राफ्टर है, बंजी जंपिंग है, मोटर बोट है, किराये की मोटरसाईकल है और तरह तरह के ईटिंग प्वायंट। लक्ष्मण झूले तक पहुँचते हुए मुझे शहर ऐसी ही सूचनाओं से पटा मिला। हाँ, फुटपाथ दी दुकानें वैसी ही थीं, बस थोड़ी आधुनिकता उनमें आ गयी है। जगह की जानकारी लेने के लिए एक आश्रम में गया तो वहीं से गंगा का दर्शन हुआ। चलते चलते थकने लगा, तो वापस हो लिया। अभी मुख्य सड़क पर आया ही था कि मयंक का फोन आया – “पापा कहाँ हैं ? आस पास ही हैं क्या ?”
“हाँ, होटल में बैठे बैठे पता नहीं लग रहा था तो यूँ ही निकला था, क्यों?”
“सोच रहे थे, हमलोग भी निकलें।”
“तबियत ठीक है ?”
“हाँ”
“ठीक है, तुरत आता हूँ।”
थोड़ी देर में हम फिर साथ साथ थे। ऋषिकेश दर्शन के लिए। तो पहले कहाँ चला जाय? लक्ष्मण झूला। चलो फिर।
यहाँ मेरा टहलना काम आ गया। हम झूले के काफी निकट वाहन खड़ी कर पाये। सारथी को भी इस पड़ाव का पता नहीं था। चलो, अधिक पैदल चलने से बचे।
“पैदल चलना ही कहाँ है पापा! झूला तो बंद हैI” नेहा ने नेट सी मिली जानकारी दी। संभवतः देख रेख के लिए बंद हुआ हो। चलो दर्शन ही कर लें।
वस्तुतः अंग्रेजों का बनाया लक्ष्मण झूला अब अपनी उम्र तय कर चुका है। उसके निकट ही नये झूले का निर्माण कार्य चल रहा है। हमने कुछ चित्र उतारे। पास में ही स्थित प्राचीन लक्ष्मण मंदिर का दर्शन किया और भोजन की खोज में लगे। आज दोसा खाना तय था।
“ऐसा दोसा तो मैं मुफ्त में भी न खाऊँ।” खाने के बाद हरीश की यह सपाट प्रतिक्रिया थी।
“पर खा तो लिया !”
“ओ जी, क्या करता फिर, यहाँ तो सब वैसे ही है। पंजाबी ढाबा लिख रखा है, वहां भी आपको पंजाबी स्वाद नहीं मिलेगा।”
बात हल्के-फुल्के अंदाज में कही गई थी लेकिन दूर तक जाती है। आज बाजार आपकी मानसिक स्थिति को भुनाने का काम ही अधिक करता है और आप सहजतापूर्वक उनकी प्रपंचनाओं में फंसते चलते हैं। अपनी ही दुनिया में केंद्रित होते हम लोगों को अब स्वाद और स्वास्थकर चीजों की पकड़ भी कहाँ रह गयी है?
हम आगे चले। लक्ष्मण झूला बन्द है पर श्रीराम झूला तो चालू है। चलो वहीं चलते हैं।
“हाँ, राम झूले पर फोटो खींच कर, लक्ष्मण झूला लिखकर पोस्ट कर देंगे, किसी को क्या पता चलेगा, दोनों तो एक जैसे दिख रहे हैं।” मुन्नू बोली। हम सब हँस पड़े।
यहाँ वाहन पड़ाव पर ही सुभाष शर्मा जी पीछे हो लिए। श्रीमान् पथ प्रदर्शक। यही नहीं, ऐसे कई। महज चंद रुपयों के लिए। ओह! कितनी बेरोजगारी है! फिर भी इसकी कोई आवश्यक्ता नहीं थी। जाने किस प्रेरणा से मैंने सुभाष को साथ कर लिया।
सुभाष ने हमें भरत मंदिर का दर्शन कराया और ऋषिकेश की कथा बतायी। हिमालय को मोक्षदाता माना जाता है। और उसका द्वार इसी स्थान को कहते हैं। सदियों से ऋषि यहाँ गंगा के तट पर तप करते थे। इसलिए इसका प्राचीन नाम तपोवन है। तप करने वाले ऋषियों के शरीर तो गल जाते थे लेकिन उनकी जटायें अर्थात् केश रह जाते थे। इसीलिए इस स्थान का नाम ऋषिकेश पड़ गया।
श्रीराम झूले की ओर चलें तो आपको जगमग दुकानों के बाजार मिलेंगे। चूडियाँ, गहने, जूट के थैले, सिले सिलाये वस्त्र, रुद्राक्ष, शंख – ऐसी अनेक चीजें ।
झूले पर बहुत भीड़ मिली। तार की रस्सियों के सहारे गंगा के उस पार ले जाने वाला यह पुल स्थानीय लोगों की जीवन रेखा है। लेकिन इससे मात्र पैदल और दुपहिया वाहन ही आ जा सकते हैं। पतले से पुल से यह क्रिया सरल नहीं। अतः कई बार वाहन चालकों और पैदल यात्रियों में झड़प भी हो जाती है। ईश्वर की कृपा से हमारे साथ ऐसा कुछ नहीं हुआ।
इस पार हमें शिव जी का प्राचीन मंदिर मिला। सुभाष ने हमें उसकी कथा बताते हुए दर्शन कराया।
हम वहीं से वापस हो गये। बाजार से थोड़ी खरीदारी की और पुनः वाहन पड़ाव पर । अब हमें परमार्थ निकेतन जाना था। दिन में जो जानकारी ली थी, उसके अनुसार हमें जानकी सेतु जाना था। हम चल पड़े। सारथी ने जैसे ही परमार्थ निकेतन का नाम सुना, बोल पड़ा –
“अरे ये तो वहीं था, राम सेतु के पास ! वो देखो उस पार।”
“हूँ, पर अब चलो। हमें ऐसा ही बताया गया था। क्या करें।”
चलिए, अब लक्ष्मण और राम के दर्शन हो गए तो सीता माता ने क्या अपराध किया है? वहीं से परमार्थ निकेतन चलेंगे। अभी आरती में समय भी तो है। वस्तुतः कल ही मेरे समधी, मुन्नू के मामा और वन विभाग में मेरे अधिकारी श्री प्रदीप कुमार ने हमें यात्रा की बधाई देते हुए परमार्थ निकेतन की गंगा आरती और स्वामी जी का प्रवचन अवश्य सुनने की सलाह दी थी। तो एक उत्कण्ठा बन चुकी थी।
हम जानकी सेतु के निकट आ गये। तीनों पुलों के बीच लगभग समान दूरी है। राम सेतु का निर्माण 1986 में हुआ था जबकि जानकी सेतु अभी हाल में ही पूरा हुआ है। यह भी तार की रस्सियों पर झूलता पुल ही है लेकिन अधिक चौड़ा है। व्यवस्था भी अच्छी। तीन भाग। पैदल चलने के लिए बीच में और दुपहिया वाहन के लिए अगल बगल से। झगड़े का कोई प्रश्न नहीं।
थोड़ा चलना पड़ा लेकिन हम समय से काफी पहले परमार्थ निकेतन पहुँच गए। बायीं ओर गंगा आरती स्थल का द्वार तो दाहिनी ओर परमार्थ निकेतन आश्रम। अभी आरती का द्वार खुलने में घण्टे भर की देर थी। मुन्नू ने कहा – “आप और मम्मी आश्रम घूम आईए हमलोग स्थान रोक कर रखते हैं। क्योंकि भीड़ बढ़ती जा रही है।”
श्रीमती जी को अब और चलने का साहस नहीं था। उन्होंने वहीं प्रतीक्षा करने की ईच्छा प्रकट की।
तब अकेला ही आश्रम में प्रविष्ट हुआ। यह विशाल परिसर में फैला हुआ एक रमणीक आश्रम है।
मुझे आँगन में लगायी गयी मुरलीवाले गोपाल, नृत्यरत नटराज तथा गंगा को धारण करते शंकर की प्रतिमाएँ बहुत आकर्षक लगीं। मुन्नू ने बताया कि आश्रम में हजार से अधिक कमरे हैं। उनकी विशाल भोजनशाला को देख कर यह विश्वास होता है। आश्रम के सन्यासियों में युवा तथा तरूण पीढ़ी को भी गेरूआ वस्त्रों में देखकर अच्छा लगा। श्रेष्ठ विचारों का पीढ़ियों में संचरण होता रहे यही तो उनकी सफलता है। हल्की बूंदा बांदी होने लगी थी।
मैं लौटा तो आरती के लिए प्रवेश आरम्भ हो गया था। एक उपयुक्त स्थान देख कर हम बैठ गये।
आश्रम के युवा और तरुण साधक व्यवस्था में व्यस्त और दर्शकों की बढ़ती भीड़। अनायास हमें अपने स्थान से उठा दिया गया। हम अब शिव की प्रतिमा की ओर नदी में बने मंच पर आ गये।
स्वामी जी के भजनों तथा नव प्रशिक्षित विदेशी साधिकाओं के मंत्रोच्चार के बाद एक वरिष्ठ विदेशी साध्वी ने हिंदी और अंग्रेजी में गंगा महामात्य और निकेतन के बारे में बताया।
हम स्वामी जी के प्रवचन की प्रतीक्षा कर रहे थे कि आरती का समय होने की सूचना दी गयी। थोड़ी अव्यवस्थित लेकिन, आरती हो गयी।
हमने भी माँ गंगे की आरती मन से उतारी।
अब हम वापस अपने विश्राम स्थल के लिए निकल पड़े। सारथी ने कहा – “अभी तो समय है, और कहीं चलना हो तो कहो ।”
“यहाँ और क्या है ?”
“है तो कुछ नहीं।”
“तब तो आराम करना ही सही रहेगा न !”
“यह भी ठीक है, कल सवेरे जल्दी निकलना भी है।”
(जारी)