आशीषों वाले हाथ
जब से बाबा गुजरे थे, परिवार के भरण-पोषण का एकमात्र सहारा, यह एक छोटी सी दुकान, पिछले छः महीने से, सुकन्या ही चला रही थी। अपने छोटे भाई और माँ की पूरी जिम्मेदारी उठा ली थी उसने।
लेकिन आज बड़ी पेशोपेश में फँसी थी सुकन्या। एक बहुत ही अच्छा रिश्ता आया था उसके लिए। माँ चाहती थी सुकन्या रिश्ते के लिए हाँ कह दे। लेकिन सुकन्या अभी अपने भाई और माँ की ही देखभाल की अपनी जिम्मेदारियों से मुख नहीं मोड़ना चाहती थी।

परेशानी की मुख्य बात यह थी कि ये रिश्ता दुकान पर ही आने वाली किसी ग्राहक ने अपने बेटे के लिए भेजा था। दुकान के माध्यम से आए रिश्ते में पिता का आशीर्वाद देख रही थी उसकी माँ। उसे समझ नहीं आ रहा था कि क्य करे, उसके जाने के बाद दुकान कौन सँभालेगा, माँ और छोटे भाई का क्या होगा? सोचसोचकर परेशान थी सुकन्या।
तभी दुकान पर एक परिचित से ही दिखने वाले सभ्य पुरुष आए। सुकन्या उनकी ओर मुखातिब हुई —
–“क्या दूँ चाचाजी! आपको?”
— “बिटिया! मुझे कोई सामान नहीं, एक मदद चाहिए तुमसे।”
— “कहिए चाचाजी! क्या मदद करूँ मैं आपकी?
— “बिटिया! मैं तुम्हारे पिता का पूर्व परिचित हूँ। कभी-कभी दुकान पर उनके साथ बैठा भी करता था। दरअसल इस समय मैं बहुत मुसीबत में हूँ। मेरे पास अभी कोई जीविका नहीं है। तुम्हारे पिता का दुखद समाचार और तुम्हारे घर की परिस्थितियाँ भी मुझे मालूम हैं। अतः मैं सोच रहा था कि यदि तुमलोगों की सहमति हो तो मैं तुम्हारी इस दुकान को सँभाल लूँ। सुबह से शाम तक बैठूँगा दुकान पर। बदले में मुझे भी कुछ मिल जाएगा और तुम्हें भी थोड़ी राहत मिल जाएगी।”
सुकन्या को ऐसा लगा जैसे ये भी उसके पिता के आशीर्वाद के साथ ईश्वर का ही कोई इशारा है। अब उसकी सारी उलझनें समाप्त हो चुकी थी। अब तो, उसके आँखों के आगे, उसकी हामी सुनने के बाद सुकून और प्रसन्नता से पूर्ण उसकी माँ का चेहरा ही घूम रहा था और सर पर पिता का आशीषों वाला हाथ महसूस हो रहा था।
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रूणा रश्मि ‘दीप्त’